विष्णुपुराण - तृतीय अंश Vishnu Puran

विष्णूपुराण भगवान विष्णु की स्तुति बताते है ! इसके पठान से सरे दोष दूर हो जाते है।


श्रीविष्णुपुराण - तृतीय अंश - अध्याय ८


 
श्रीमैत्रेयजी बोले - 
हे भगवान् ! जो लोग संसारको जीतना चाहते हैं वे जिस जगत्पति भगवान् विष्णुकी उपासना करते है, वह वर्णन कीजिये ॥१॥
और हे महामुने ! उन गोविन्दकी आराधना करनेवाला आराधनपरायण पुरुषोंको जो फल मिलता है, वह भी मैं सुनना चाहता हूँ ॥२॥
श्रेपराशरजी बोले - मैत्रेय ! तुम जो कुछ पूछते हो यही बात महात्मा सगरने और्वसे पूछी थी । उसके उत्तरमें उन्होंने जो कुछ कहा वह मैं तुमको सुनाता हुँ, श्रवण करो ॥३॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! सगरने भृगुंवंशी महात्मा और्वको प्रणाम करके उसने भगवान् विष्णुकी आराधनाके उपाय और विष्णुकी उपासना करनेसे मनुष्यको जो फल मिलता है उसके विषयके पूछा था । उनके पूछनेपर और्वने यत्नपूर्वक जो कुछ कहा था वह सब सुनो ॥४-५॥
और्व बोले - भगवान् विष्णुकी आराधना करनेसे मनुष्य भूमण्डल-सम्बन्धी समस्त मनोरथ, स्वर्ग, स्वर्गसे भी श्रेष्ठ ब्रह्मपद और परम निर्वाण - पद भी प्राप्त कर लेता है ॥६॥
हे राजेन्द्र ! वह जिस जिस फलकी जितनी-जितनी इच्छा करता है, अल्प हो या अधिक, श्रीअच्युतकी आराधनासे निश्चय ही वह सब प्राप्त कर लेता है ॥७॥
और हे भूपाल ! तुमने जो पूछा कि हरिकी आराधना किस प्रकार की जाय, सो सब मैं तुमसे कहता हूँ, सावधान होकर सुनो ॥८॥
जो पुरुष वर्नाश्रम - धर्मका पालन करनेवाला है वही परमपुरुष विष्णुकी आराधना कर सकता है; उनको सन्तुष्ट करनेका और कोई मार्ग नहीं है ॥९॥
हे नॄप ! यज्ञोंका यजन करनेवाला पुरुष उन ( विष्णु ) हीका यजन करता है, जप करनेवाला उन्हींका जप करता है और दूसरोंकी हिंसा करनेवाला उन्हींकी हिंसा करता है; क्योंकी भगवान् हरि सर्वभूतमय हैं ॥१०॥
अतः सदाचारयुक्त पुरुष अपने वर्णके लिये विहित धर्मका आचरण करते हुए श्रीजनार्दनहीकी उपासना करता है ॥११॥
हे पृथिवीपते ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र अपने - अपने धर्मका पालन करते हुए ही विष्णुकी आराधना करते हैं, अन्य प्रकारसे नहीं ॥१२॥
जो पुरुष दुसरोंकी निन्दा, चुगली अथवा मिथ्याभाषण नहीं करता तथा ऐसा वचन भी नहीं बोलता जिससें दूसरोंको खेद हो , उससे निश्चय ही भगवान केशव प्रसन्न रहते हैं ॥१३॥
हे राजन् ! जो पुरुष दूसरोंकी स्त्री, धन और हिंसामें रुचि नहीं करता उससे सर्वदा ही भगवान् केशव सन्तुष्ट रहते हैं ॥१४॥
हे नरेन्द्र ! जो मनुष्य ! किसी प्राणी अथवा ( वृक्षादि ) अन्य देहधारियोंको पीड़ित अथवा नष्ट नहीं करता उससे श्रीकेशव सन्तुष्ट रहते हैं ॥१५॥
जो पुरुष देवता, ब्राह्मण और गुरुजनोंकी सेवामें सदा तप्तर रहता है, हे नरेश्वर ! उससे गोविन्द सदा प्रसन्न रहते हैं ॥१६॥
जो व्यक्ति स्वयं अपने और अपने पुत्रोंके समान ही समस्त प्राणयोंका भी हित - चिन्तक होता है वह सुगमतासे ही श्रीहरीको प्रसन्न कर लेता है ॥१७॥
हे नृप ! जिसका चित्त रागादि दोषोंसे दूषित नहीं है उस विशुद्ध - चित्त पुरुषसे भगवान् विष्णु सदा सन्तुष्ट रहते हैं ॥१८॥
हे नृपश्रेष्ठ ! शास्त्रोंमें जो- जो वर्णाश्रम धर्म कहे हैं उन - उनका ही आचरण करके पुरुष विष्णुकी आराधना कर सकता है और किसी प्रकार नहीं ॥१९॥
सगर बोले - हे द्विजश्रेष्ठ ! अब मैं सम्पूर्ण वर्णधर्म और आश्रमधर्मोको सुनना चाहता हूँ, कृपा करके वर्णन कीजिये ॥२०॥
और्व बोले - जिनका मैं वर्णन करता हूँ, उन ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रोंके धर्मोंका तुम एकाग्रचित्त होकर क्रमशः श्रवण करो ॥२१॥
ब्राह्मणका कर्तव्य है कि दान दे, यज्ञोंद्वारा देवताओंका यजन करे, स्वाध्यायशील हो, नित्य स्नान तर्पण करे और अग्न्याधान आदि कर्म करता रहे ॥२२॥
ब्राह्मणको उचित है कि वृत्तिके लिये दूसरोंसे यज्ञ करावे, औरोंको पढ़ावे और न्यायोपार्जित शुद्ध धनमेंसे न्यायानुकुल द्रव्य- संग्रह करे ॥२३॥
ब्राह्मणको कभी किसीका अहित नहीं करना चाहिये और सर्वदा समस्त प्राणियोंके हितमें तत्पर रहना चाहिये । सम्पूर्ण प्राणियोंमें मैत्री रखना ही ब्राह्मणका परम धन हैं ॥२४॥
पत्थरमें और पराये रत्नमें ब्राह्मणको समान - बुद्धि रखनी चाहिये । हे राजन् ! पत्नीके विषयमें ऋतुगामी होना ही ब्राह्मणके लिये प्रशंसनीय कर्म हैं ॥२५॥
क्षत्रियको उचित है कि ब्राह्मणोंको यथेच्छ दान दे, विविध यज्ञोका अनुष्ठान करे और अध्ययन करे ॥२६॥
शस्त्र धारण करना और पृथिवीकी रक्षा करना ही क्षत्रियकी उत्तम आजीविका है: इनमें भी पृथिवी पालन हे उत्कृष्टतर हैं ॥२७॥
पृथिवी पालनसे ही राजालोक कृतकृत्य हो जाते है, क्योंकी पृथिवीमें होंनेवाले यज्ञादि कर्मोका अंश राजाको मिलता हैं ॥२८॥
जो राजा अपने वर्णधर्मको स्थिर रखता है वह दुष्टोंको दण्ड देने और साधुजनोंका पालन करनेसे अपने अभीष्ट लोकोंको प्राप्त कर लेता हैं ॥२९॥
हे नरनाथ ! लोकपितामह ब्रह्माजीने वैश्योंको पशु-पालन, वाणिज्य और कृषि ये जीविकारुपसे दिये है ॥३०॥
अध्ययन यज्ञ दान और नित्यनैमित्तिकादि कर्मोका अनुष्ठान - ये कर्म उसके लिये भी विहित हैं ॥३१॥
शूद्रका कर्तव्य यही है कि द्विजातियोंकी प्रयोजन सिद्धिके लिये कर्म करे और उसीसे अपना पालन - पोषण करें, अथवा ( आपत्कलमें, जब उक्त उपायसे जीविकानिर्वाह न हो सके तो ) वस्तुओंके लेने - बेचनें अथवा करीगरीके कर्मोंसे निर्वाह करे ॥३२॥
अति नम्रता, शौच निष्कपट, स्वामि सेवा सन्त्नहीन यज्ञ, अस्तेय, सत्संग और ब्राह्मणकी रक्षा करना - ये शूद्रके प्रधान कर्म हैं ॥३३॥
हे राजन ! शूद्रको भी उचित है कि दान दे, बलिवैश्वदेव अथवा नमस्कार आदि अल्प यज्ञोंका अनुष्ठान करे, पितृश्राद्ध आदि कर्म करे, अपने आश्रित कुटुम्बियोंके भरण - पोषणके लिये सकल वर्णोंसे द्र्व्यसंग्रह करे और ऋतुकालमें अपनी ही स्त्रीसे प्रसंग करे ॥३४-३५॥
हे नरेश्वर ! इनके अतिरिक्त समस्त प्राणियोंपर दया, सहनशीलता, अमानिता, सत्य, शौच, अधिक परिश्रम न करना , मंगलाचरण, प्रियवादिता, मैत्री, निष्कामता, अकृतपणता और किसीके दोष न देखना - ये समस्त वर्णोके सामान्य गुण हैं ॥३६-३७॥
सब वर्णोंके सामान्य लक्षण इसी प्रकार हैं । अब इन ब्राह्मणादि चारों वर्णोके आपद्धर्म और गुणोंका श्रवण करो ॥३८॥
आपत्तिके समय ब्राह्मणको क्षत्रिय और वैश्य - वर्णोकी वृत्तिका अवलम्बन करना चाहिये तथा क्षत्रियको केवल वैश्यवृत्तिका ही आश्रय लेना चाहिये । ये दोनों शूद्रका कर्म ( सेवा आदि ) कभी न करें ॥३९॥
हे राजन् ! इन उपरोक्त वृत्तियोंको भी सामर्थ्य होनेपर त्याग दे, केवल आपत्कालमें ही इनका आश्रय ले, कर्म संकरता ( कर्मोका मेल ) न करे ॥४०॥
हे राजन ! इस प्रकार वर्णधर्मोका वर्णन तो मैंने तुमसे कर दिया; अब आश्रय धर्मोका निरुपण और करता हूँ, सावधान होकर सुनो ॥४१॥