श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - 1

भारतीय जीवन-धारा में पुराणों का महत्वपूर्ण स्थान है, पुराण भक्ति ग्रंथों के रूप में बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। जो मनुष्य भक्ति और आदर के साथ विष्णु पुराण को पढते और सुनते है,वे दोनों यहां मनोवांछित भोग भोगकर विष्णुलोक में जाते है।


श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - अध्याय ७


 
श्रीपराशरजी बोले- 
फिर उन प्रजापतिके ध्यान करनेपर उनके देहस्वरूप भूतोंसे उप्तन्न हुए शरीर और इन्द्रियोंके सहित मानस प्रजा उप्तन्न हुई । उस समय मतिमान् ब्रह्माजीके जड शरीरसे ही चेतन जीवोंका प्रादुर्भाव हुआ ॥१॥
मैंने पहले जिनका वर्णन किया है, देवताओंसे लेकर स्थावरपर्यंन्त वे सभी त्रिगुणात्मक चर और अचर जीव इसी प्रकार उप्तन्न हुए ॥२-३॥
जब महाबुद्धिमान् प्रजापतिकी वह प्रजा पुत्र-पौत्रादि - क्रमसे और न बढ़ी तब उन्होनें भृगु, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, अंगिरा, मरीचि , दक्ष , अत्रि और वसिष्ठ-इन अपने ही सदृश अन्य मानस पुत्रोंकी सृष्टि की । पुराणोंमे ये नौ ब्रह्मा माने गये हैं ॥४-६॥
फिर ख्याति, भूति , सम्भूति, क्षमा , प्रीति, सन्नति, ऊर्ज्जा, अनसूया तथा प्रसूति इन नौ कन्याओंको उप्तन्न कर, इन्हें उन महात्माओंको 'तुम इनकी पत्नी हो' ऐसा कहकर सौंप दिया ॥७-८॥
ब्रह्माजीने पहले जिन सनन्दनादिको उप्तन्न किया था वे निरपेक्ष होनेके कारण सन्तान और संसार आदिमें प्रवृत्त्फ़ नहीं हुए ॥९॥
वे सभी ज्ञानसम्पन्न, विरक्त और मत्सरादि दोषोंसे रहित थे । उन महात्माओंको संसार रचनासे ब्रह्माजीको त्रिलोकीको भस्म कर देनेवाला महान् क्रोध उप्तन्न हुआ । हे मुने ! उन ब्रह्माजीके क्रोधके कारण सम्पूर्ण त्रिलोकी ज्वाला-मालाओंसे अत्यन्त देदीप्यमान हो गयी ॥१०-११॥
उस समय उनकी टेढी़ भॄकुटि और क्रोध सन्तत्प ललाटसे दोपहरके सूर्यके समान प्रकाशमान रुद्रकी उप्तत्ति हुई ॥१२॥
उसका अति प्रचण्ड शरीर आधा नर और आधा नारीरूप था । तब ब्रह्माजी 'अपने शरीरका विभाग कर' ऐसा कहकर अन्तर्धान हो गये ॥१३॥
ऐसा कहे जानेपर उस रुद्रने अपने शरीरस्थ स्त्री और पुरुष दोनों भोगोंको अलग अलग कर दिया और फिर पुरुष भागको ग्यारह भागोंमें विभक्त किया ॥१४॥
तथा स्त्री भागको भी सौम्य, क्रूर, शान्त अशान्त और श्याम गौर आदि कई रूपोंमें विभक्त कर दिया ॥१५॥
तदनन्तर हे द्विज ! अपनेसे उप्तन्न अपने ही स्वरूप स्वायम्भुवको ब्रह्माजीने प्रजा पालनके लिये प्रथम मनु बनाया ॥१६॥
उन स्वायम्भुव मनुने ( अपने ही साथ उप्तन्न हुई ) तपके कारण निष्पाप शतरूपा नामकी स्त्रीको अपनी पत्नीरूपसे ग्रहण किया ॥१७॥
हे धर्मज्ञ ! उन स्वायम्भुव मनुसे शतरूपा देवीने प्रियव्रत और उत्तानपादनामक दो पुत्र तथा उदार, रूप और गुणोंसे सम्पन्न प्रसूति और आकूति नामकी दो कन्याएँ उप्तन्न कीं । उनमेंसे प्रसूतिको दक्षके साथ तथा आकूतिको रुचि प्रजापतिके साथ विवाह दिया ॥१८-१९॥
हे महाभाग ! रुचि प्रजापतिने उसे ग्रहण कर लिया । तब उन दम्पतीके यज्ञ और दक्षिणा - ये युगल ( जुड़्वाँ ) सन्तान उप्तन्न हुई ॥२०॥
यज्ञके दक्षिणासे बारह पुत्र हुए, जो स्वायम्भूव मन्वन्तरमें याम नामके देवता कहलाये ॥२१॥
तथा दक्षने प्रसूतिसे चौबीस कन्याएँ उप्तन्न कीं । मुझसे उनके शुभ नाम सुनो ॥२२॥
श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तृष्टि, मेधा, पृष्टि, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शान्ति, सिध्दि और तेरहवीं कीर्ति- इन दक्ष कन्याओंको धर्मने पत्नीरूपसे ग्रहण किया । इनसे छोटी शेष ग्यारह कन्याएँ ख्याति, सती, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, सन्तति, अनसुया, ऊर्ज्जा, स्वाहा और स्वधा थीं ॥२३-२५॥
हे मुनिसत्तम ! इन ख्याति आदि कन्याओंको क्रमशः भृगु, शिव मरीचि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, अत्रि, वसिष्ठ- इन मुनियों तथा अग्नि और पितरोंने ग्रहण किया ॥२६-२७॥
श्रद्धासे काम, चला ( लक्ष्मी ) से दर्प, धृतिसे नियम, तुष्टिसे सन्तोष और पुष्टिसे लोभकी उप्तत्ति हूई ॥२८॥
तथ मेधासे श्रुत, क्रियासे दण्ड, नय और विनय, बुद्धिसे बोध, लज्जासे विनय, वपुसे उसका पुत्र व्यवसाय, शान्तिसे क्षेम, सिद्धिसे सुख और कीर्तिसे यशका जन्म हुआः ये ही धर्मके पुत्र हैं । रीतने कामसे धर्मके पौत्र हर्षको उप्तन्न किया ॥२९-३१॥
अधर्मकी स्त्री हिंसा थी, उससे अनृत नामक पुत्र और निकृति नामकी कन्या उप्तन्न हुई । उन दोनोंसे भय और नरक नामके पुत्र तथा उनकी पत्नियाँ माया और वेदना नामकी कन्याएँ हूई । उनमेंसे मायाने समस्त प्राणियोंका संहारकार्त्ता मृत्यु नामक पुत्र उप्तन्न किया ॥३२-३३॥
वेदनाने भी रौरव ( नरक ) के द्वारा अपने पुत्र दुःखको जन्म दिया और मृत्युसे व्याधि, जरा, शोक तृष्णा और क्रोधाकी उप्तत्ति हुई ॥३४॥
ये सब अधर्मरूप हैं और 'दुःखोत्तर' नामसे प्रसिद्ध हैं, ( क्योंकि इनसे परिणाममें दुःख ही प्राप्त होता है ) इनके न कोई स्त्री है और न सन्तान । ये सब ऊर्ध्वरेता हैं ॥३५॥
हे मुनिकुमार ! ये भगवान् विष्णुके बड़े भयंकर रूप हैं और ये ही संसारके नित्य प्रलयके कारण होते हैं ॥३६॥
हे महाभाग ! दक्ष मरीचि, अत्रि और भृगु आदि प्रजापतिगण इस जगत्‌के नित्य सर्गके कारण हैं ॥३७॥
तथा मनु और मनुके पराक्रमी, सन्मार्गपरायण और शूर वीर पुत्र राजागण इस संसारकी नित्य स्थितिके कारण हैं ॥३८॥
श्रीमैत्रेयजी बोले- हे ब्रह्मन ! आपने जो नित्यस्थिति नित्य, सर्ग और नित्य प्रलयका उल्लेख किया सो कृपा करके मुझसे इनका स्वरूप वर्णन कीजिये ॥३९॥
श्रीपराशरजी बोले- जिनकी गति कहीं नहीं रुकती वे अचिन्त्यात्मा सर्वव्यापक भगवान् मधुसूदन निरन्तर इन मनु आदि रूपोंसे संसारकी उप्तत्ति, स्थिति और नाश करते रहते हैं ॥४०॥
हे द्विज ! समस्त भूतोंका चार प्रकारका प्रलय है - नैमित्तिक, प्राकृतिक , आत्यन्तिक और नित्य ॥४१॥
उनमेंसे नैमित्तिक प्रलय ही ब्राह्म-प्रलय है, जिसमें जगत्पति ब्रह्माजी कल्पान्तमें शयन करते हैं; तथा प्राकृतिक प्रलयमें ब्रह्माण्ड प्रकृतिमें लीन हो जाता है ॥४२॥
ज्ञानके द्वारा योगीका परमात्मामें लीन हो जाना आत्यान्तिक प्रलय है और रात दिन जो भूतोंका क्षय होता है वही नित्य प्रलय है ॥४३॥
प्रकृतिसे महत्तत्वादिक्रमसे जो सृष्टि होती है वह प्राकृतिक सृष्टि कहलाती है और अवान्तर प्रलयके अनन्तर जो ( ब्रह्माके द्वारा ) चराचर जगत्‌की उप्तत्ति होती है वह दैनन्दिनी सृष्टि कही जाती है ॥४४॥
और हे मुनिश्रेष्ठ ! जिसमें प्रतिदिन प्राणियोंकी उप्तत्ति होती रहती है उसे पुराणार्थमें कुशल महानुभावोंने नित्य सृष्टि कहा है ॥४५॥
इस प्रकार समस्त शरीरमें स्थित भूतभावन भगवान् विष्णु जगत्‌की उप्तत्ति, स्थिति और प्रलय करते रहते हैं ॥४६॥
हे मैत्रेय ! सृष्टि, स्थिति और विनाशकीं इन वैष्णवी शक्तियोंका समस्त शरीरोंमें समान भावसे अहिर्निश सत्र्चार होता रहता है ॥४७॥
हे ब्रह्मन् । ये तीनों महतीं शक्तियाँ त्रिगुणमयी है, अतः जो उन तीनों गुणोंका अतिक्रमण कर जाता है वह परमपदको ही प्राप्त कर लेता है, फिर जन्म मरणादिके चक्रमें नहीं पड़्ता ॥४८॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे सप्तमोऽध्यायः ॥७॥