पहला भाग: अन्तरंग भाग

स्वामी सहजानन्द सरस्वती लिखित भगवद गीता का हिंदी में सार


श्रद्धा, दिल और दिमाग

जिस गीता में श्रद्धा कहा गया है वह भी इन्हीं के भीतर आ जाती है और कर्मों को बुरा या भला बनाने में श्रद्धा का बहुत बड़ा हाथ माना जाता है। यही बात 'श्रद्धामयोऽयं पुरुष:' (17। 3) आदि में गीता ने कही है। 'यस्य नाहंकृतो भाव:' (18। 17) आदि वचन भी यही बताते हैं। दिल के भीतर किसी काम के प्रति जो प्रेम और विश्वास होता है उन दोनों को मिला के ही श्रद्धा कही जाती है। श्रद्धा इस बात को सूचित करती है कि दिमाग दिल की मातहती में - उसके नीचे - आ गया है। विद्वत्ता में ठीक इसके उलटा दिल को ही दिमाग की मातहती करनी होती है। हाँ, आत्मज्ञान, आत्मदर्शन, तत्त्वज्ञान, ब्रह्मज्ञान, स्थितप्रज्ञता, गुणातीतता और ज्ञानस्वरूप भक्ति, (चतुर्थभक्ति) की दशा में दिल तथा दिमाग दोनों ही हिल-मिल जाते हैं। इसे ही ब्राह्मीस्थिति, समदर्शन ऐक्यज्ञान आदि नामों से भी पुकारा गया है। जब सिर्फ हृदय या दिल का निराबाध प्रसार होता है और उसका मददगार दिमाग नहीं होता तो अंध परंपरा को स्थान मिल जाता है, क्योंकि हृदय में अंधापन होता है। इसीलिए उसे दीपक की आवश्यकता होती है और यही काम दिमाग या बुद्धि करती है।

विपरीत इसके जब दिमाग या बुद्धि का घोड़ा बेलगाम सरपटें दौड़ता है और उस पर दिल का दबाव या हृदय का अंकुश नहीं रहता तो नास्तिकता, अनिश्चितता, संदेह आदि की काफी गुंजाइश होती है। क्योंकि तर्क और दलील को पहरेदार सिपाही जैसा मानते हैं। इसीलिए वह एक स्थान पर टिका रह सकता नहीं, अप्रतिष्ठ होता है, स्थान बदलता रहता है - 'तर्कोऽप्रतिष्ठ:।' फलत: सदा के लिए उसका किसी एक पदार्थ पर, एक निश्चय पर जम जाना असंभव होता है। अच्छे से अच्छे तर्क को भी मात करने के लिए उससे भी जबर्दस्त दलील आ खड़ी होती है और उसे भी पस्त करने के लिए तीसरी आती है। इस प्रकार तर्कों और दलीलों का ताँता तथा सिलसिला जारी रहता है, जिसका अंत कभी होता ही नहीं। फिर किसी बात का आखिरी निश्चय हो तो कैसे? संसार भर की बुद्धि आजमा के थक जाए, खत्म हो जाए, तभी तो ऐसा हो। मगर बुद्धि का अंत, परिधि, अवधि या सीमा तो है नहीं। बुद्धियाँ तो अनंत हैं और नई-नई बनती भी रहती हैं, उनका प्रसार होता रहता है - 'बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धय:।'

यही कारण है कि दिल और दिमाग दोनों ही को अलग-अलग निरंकुश एवं बेलगाम छोड़ देने की अपेक्षा गीता ने दोनों को एक साथ कर दिया है, मिला दिया है। इससे परस्पर दोनों की कमी को एक दूसरा पूरा कर लेता है - दिल की कमी या उसके चलते होने वाले खतरे को दिमाग, और दिमाग की त्रुटि या उसके करते जिस अनर्थ की संभावना है उसे दिल हटा देता है। इस प्रकार पूर्णता आ जाती है। लालटेन या चिराग के नीचे, उसके अत्यंत नजदीक अँधेरा रहता ही है। मगर अगर दो लालटेनें पास-पास रख दी जाएँ तो दोनों के ही तले का अँधेरा जाता रहता है। यही बात यहाँ भी हो जाती है। कर्म-अकर्म, कर्तव्य-अकर्तव्य या कर्म के योग और उसके संन्यास जैसे पेचीदे एवं गहन मामले में जरा भी कमी, जरा भी गड़बड़ी बड़ी ही खतरनाक हो सकती है। यही कारण है कि दिल और दिमाग को मिला के गीता ने उस खतरे को खत्म कर दिया है।